5देख, तूने मेरी उम्र बालिश्त भर की रख्खी है, और मेरी ज़िन्दगी तेरे सामने बे हक़ीक़त है। यक़ीनन हर इंसान बेहतरीन हालत में भी बिल्कुल बेसबात है सिलाह
6दर हक़ीकत इंसान साये की तरह चलता फिरता है; यक़ीनन वह फ़जूल घबराते हैं; वह ज़ख़ीरा करता है और यह नहीं जानता के उसे कौन लेगा!
7“ऐ ख़ुदावन्द! अब मैं किस बात के लिए ठहरा हूँ? मेरी उम्मीद तुझ ही से है।
8मुझ को मेरी सब ख़ताओं से रिहाई दे। बेवक़ूफ़ों को मुझ पर अंगुली न उठाने दे।
9मैं गूंगा बना, मैंने मुँह न खोला क्यूँकि तू ही ने यह किया है।
10मुझ से अपनी बला दूर कर दे; मैं तो तेरे हाथ की मार से फ़ना हुआ जाता हूँ।
11जब तू इंसान को बदी पर मलामत करके तम्बीह करता है; तो उसके हुस्न को पतंगे की तरह फ़ना कर देता है; यक़ीनन हर इंसान बेसबात है। सिलाह