27और उनके लिये माँस धूलि के समान बहुत बरसाया, और समुद्र के रेत के समान अनगिनत पक्षी भेजे;
28और उनकी छावनी के बीच में, उनके निवासों के चारों ओर गिराए।
29और वे खाकर अति तृप्त हुए, और उसने उनकी कामना पूरी की।
30उनकी कामना बनी ही रही, उनका भोजन उनके मुँह ही में था,
31कि परमेश्वर का क्रोध उन पर भड़का, और उसने उनके हष्टपुष्टों को घात किया, और इस्राएल के जवानों को गिरा दिया। (1 कुरि. 10:5)
32इतने पर भी वे और अधिक पाप करते गए; और परमेश्वर के आश्चर्यकर्मों पर विश्वास न किया।
33तब उसने उनके दिनों को व्यर्थ श्रम में, और उनके वर्षों को घबराहट में कटवाया।
34जब वह उन्हें घात करने लगता*, तब वे उसको पूछते थे; और फिरकर परमेश्वर को यत्न से खोजते थे।