22 इसलिए कि उन्होंने परमेश्वर पर विश्वास नहीं रखा था, न उसकी उद्धार करने की शक्ति पर भरोसा किया।
23 तो भी उसने आकाश को आज्ञा दी, और स्वर्ग के द्वारों को खोला;
24 और उनके लिये खाने को मन्ना बरसाया, और उन्हें स्वर्ग का अन्न दिया। (निर्ग. 16:4, यूह. 6:31)
25 मनुष्यों को स्वर्गदूतों की रोटी मिली; उसने उनको मनमाना भोजन दिया।
26 उसने आकाश में पुरवाई को चलाया, और अपनी शक्ति से दक्षिणी बहाई;
27 और उनके लिये माँस धूलि के समान बहुत बरसाया, और समुद्र के रेत के समान अनगिनत पक्षी भेजे;
28 और उनकी छावनी के बीच में, उनके निवासों के चारों ओर गिराए।
29 और वे खाकर अति तृप्त हुए, और उसने उनकी कामना पूरी की।
30 उनकी कामना बनी ही रही, उनका भोजन उनके मुँह ही में था,
31 कि परमेश्वर का क्रोध उन पर भड़का, और उसने उनके हष्टपुष्टों को घात किया, और इस्राएल के जवानों को गिरा दिया। (1 कुरि. 10:5)
32 इतने पर भी वे और अधिक पाप करते गए; और परमेश्वर के आश्चर्यकर्मों पर विश्वास न किया।
33 तब उसने उनके दिनों को व्यर्थ श्रम में, और उनके वर्षों को घबराहट में कटवाया।